भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तेरा ईश्वर / असंगघोष
Kavita Kosh से
तेरे
ईश्वर की
अपनी भाषा है देवभाषा
जिसमें
वह बोलता है, सुनता है
और समझता है
मुझे ना इसे पढ़ना है, ना इसे समझना
इसे बोल मेरे पुरखे
अपनी जिह्वा खिंचवा चुके
उनके कानों में डले
पिघले सीसे की कसमसाहट
अब भी बाकी है
मेरे कानों में
तेरे ऐसे ईश्वर को
मैं अब अपनी कोई भी बात
समझाना भी नहीं चाहता,
वह मेरी अनगढ़ बोली-भाषा
ना पहले कभी समझ सका
ना अब कभी समझेगा
उसे रमता रहने दो।