तेरे मेरे दुःख / शर्मिष्ठा पाण्डेय
रोज़ सवेरे सर चढ़ आये सूरज से झुलसाते दुःख
शाम ढले तक छोटे छोटे सपनों में बँट जाते दुःख
रोज़ समेटा करती रहती अलग अलग से सारे दुःख
पल-पल कितना घटते बढ़ते सुरसा से मायावी दुःख
ठंडा चूल्हा ,गर्म पतीली जैसे ये बेमेल से दुःख
तेरी मेरी,प्यासी भूखी रोज़ कहानी कहते दुःख
नाज़ुक धागे,भरी मनका कैसे शपा संभाले दुःख
हड्डी के ढांचों पे सजते सोने तमगे जैसे दुःख
थोड़ा जीना ज्यादा मरना आम आदमी जैसे दुःख
मुझको लगे हैं मिलते जुलते,तेरे दुःख ये मेरे दुःख
बड़ी मुरादों जैसे पलते सीने में महबूब से दुःख
तुझसे पाया,सबसे छुपाया कुछ-कुछ शर्मिंदा से दुःख
थपकी देकर बहलाती हूँ दुधमुंहे से सोते दुःख
मिल कर तुझसे रो ही देंगे नन्हे ये मासूम से दुःख
ठहर गए मेरी आँखों में तेरी यादों जैसे दुःख
खारे-खारे,गीले-गीले कुछ कुछ आंसू जैसे दुःख
लिपटाये मैं घूम रही हूँ तेरे बदन की उतरन दुःख
सूती गठरी में गर्माते ऊनी कपड़ों जैसे दुःख
पत्थर मारा तोड़ के लायी आम की कैरी जैसे दुःख
मां के आँचल में गठियाये इकलौते रुपये से दुःख
इंसानों की भीड़ में चलते कुछ अपने,बेगाने दुःख
रोज़ बदलते शक्लें अपनी अनदेखे,अनजाने दुःख
रोज़ पूछती पता ठिकाना,कहाँ से आया रे तू दुःख
अल्हड़ लड़की से इठलाते छाती से लग जाते दुःख:(