तेरौ भलौ हियौ है माई / सूरदास
राग सोरठ
(जसोदा) तेरौ भलौ हियौ है माई !
कमल-नैन माखन कैं कारन, बाँधे ऊखल ल्याई ॥
जो संपदा देव-मुनि-दुर्लभ, सपनेहुँ देइ न दिखाई ।
याही तैं तू गर्ब भुलानी, घर बैठे निधि पाई ॥
जो मूरति जल-थल मैं ब्यापक, निगम न खौजत पाई ।
सो मूरति तैं अपनैं आँगन, चुटकी दै जु नचाई ॥
तब काहू सुत रोवत देखति, दौरि लेति हिय लाई ।
अब अपने घर के लरिका सौं इती करति निठुराई ॥
बारंबार सजल लोचन करि चितवत कुँवर कन्हाई ।
कहा करौं, बलि जाउँ, छोरि तू, तेरी सौंह दिवाई ॥
सुर-पालक, असुरनि उर सालक, त्रिभुवन जाहि डराई ।
सूरदास-प्रभु की यह लीला, निगम नेति नित गाई ॥
भावार्थ :-- (गोपी कहती है-) `सखी यशोदा जी! तुम्हारा अच्छा (कठोर) हृदय है, जो मक्खन के लिये लाकर कमल-लोचन को तुम ने ऊखल से बाँध दिया । जो सम्पत्त देवता तथा मुनियों को भी दुर्लभ है, स्वप्न में भी उन्हे दिखलायी नहीं पड़ती, वही महान् निधि घर बैठे तुमने पा ली इसी से गर्व में ( अपने-आप को) भूल गयी हो । जो मूर्तिजल-स्थल में सर्वत्र व्यापक है, वेद ढूँढ़कर भी जिसे नहीं पा सके, उसी मूर्ति (साकार ब्रह्म)को तुमने अपने आँगन में चुटकी बजाकर नचाया है ! तब तो (जब पुत्र नहीं था) किसी के भी लड़के को रोते देखकर दौड़कर हृदय से लगा लेती थीं और अब अपने घर के बालक से ही इतनी निष्ठुरता कर रही हो ? कुँवर कन्हाई बार-बार नेत्रों में आँसू भरकर देखता है । क्या करूँ मैं बलिहारी जाती हूँ, तुम्हारी ही शपथ तुम्हें दिलाती हूँ कि इसे तुम छोड़ दो ।` सूरदास जी कहते हैं कि जो देवताओं के भी पालनकर्ता तथा असुरों के हृदय को पीड़ा देने वाले हैं--(यही नहीं) त्रिभुवन जिनसे डरता है, मेरे उन प्रभु की यह लीला है । (इसी से तो) वेद `नेति-नेति (इनका अन्त नहीं है, नहीं है) कहकर नित्य (इनका) गान करता है ।