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तेसर खण्‍ड / भाग 1 / बैजू मिश्र 'देहाती'

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आबि अयोध्या दशरथ कयलनि,
महा महोत्सव सुखद ललाम।
कौशल्या कैकेयि सुमित्रा,
सबहक पूर्ण भेल मन काम।
दिवस बिता किछु अभिशेषक हित,
गेला अवधपति गुरूक समीप।
गुरू वशिष्ठ शुभ दिन लखि कहलनि,
काल्हि करू ई कार्य महीप।
पसरल बात चहुदिश तत्क्षण,
सभ क्यो पओलनि अति सयँ हर्ष।
ओरिआओन सभ होमए लागल,
जेहन देल गुरू अपन विमर्श।
छलै एम्हर ओरिआओन झट-झट,
अंतःपुर मे छल षडयंत्र।
दासि मंथरा कैकेयीकें,
कान फुकै छलि उनटा मंत्र।
की तकैत छी बेर ठीक अछि,
नृप देने छथि दू वरदान।
मांगि लिअऽ ई राज्य भरथ हित,
राम करथि वनकें प्रस्थान।
चौदह वर्ष विपिन मे रहने,
रामक मेटत सकल प्रभाब।
एम्हर भरथ रहि राज्यक अधिपति,
बढ़ा लेता सभपर निज दाब।
अहाँ कहायब राज्यक माता,
छोडू जुनि ई वर सम्मान।
पाछा पछताएब सिर धुनि-धुनि,
हैत जखन नृपसिक अवसान।
पहिने खौंझेली कैकेयी,
मंथराक सुनि बगदल बात।
किन्तु भविष्यक अधिपति ईश्वर,
जेहन बहाबथि अपन बसात।
कैकेयी फँसिगेली जालमे,
मंथराक छल कूट विशाल।
अबध राज्य पर पड़ल काल केर,
छाया बनिकए बहुत कराल।
छलकल क्रोध देह कैकेयी,
कोप भवन मे लए खटबास।
सुख सुगंधजत बहु बहइत छल,
ततए लेल दुर्गध निवास।
सुनितहि नृप अंतःपुर अएला,
कोप भवन मंे कयल प्रवेश।
खिन्न दशालखि कैकेयी केर,
चिंतित भेला स्वयं अवधेश।
रानीसँ पूछल की कारण,
हमरा सभटा कहू बुझाए,
पूर्ण करब हम बचन दैत छी,
भुवन संग आकाशहुँ जाए।
देने की वरदान पूर्वमे,
दू टा सुनु हे अवध नरेश।
पूर्ण करू कैकेयी बजली,
तखन कहब हम, छी अवधेश।
भेटए राज्य भरथकें अवधक,
चौदह बर्ष राम बनवास।
सत्य करू दूहूकें ऐखन,
रघुकुल रीतिक हो विश्वास।
रानिक वचन कोढ़मे लागल,
नृपकें जनु विष बेधल तीर।
कटल बृक्ष सन भूपर खसला,
तजि देलक मन सभटा धीर।
गर्द पड़ल आंगन ओ बाहर,
सकल काज सभटा अभिशेष।
बूझिबात सभ एहि प्रसंगक,
धैर्य रहल नहि ककरो शेष।
छण भरि पहिने जाहि आयोध्या,
मे छल सुखकेर अमित प्रवाह।
ततए दुःख केर सागर उमड़ल,
सबहक मन छल व्यथा अथाह।
कानि कानि सभकें सभ पूछथि,
किए देल ई दुर्दिन ईश।
कतेक पाप छल हमारा सबहक,
फल स्वरूप छनि एतबा रीस।
अएला राम बुझाओल सभकें,
मन नहि राखू किछु संताप।