तेसरोॅ सर्ग / रोमपाद / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय
जमलोॅ छेलै सभा मंत्री के
संकट दूर करै लेॅ,
रोमपाद के ऊपर ऐलोॅ
विपदा घोर हरै लेॅ।
मौन सभासद केॅ देखी केॅ
रोमपाद अकुलैलै,
सिंहासन सें उतरी नीचेॅ
सभासदोॅ लुग ऐलै।
आरो कहलकै मन के निर्णय
जैसें संकट भागेॅ,
भाग अंग के नै खाली ही
अवधो केरोॅ जागेॅ।
रूपाजीवा, श्रेष्ठ नर्त्तकी
चुनी-चुनी केॅ लावोॅ,
ओकरै सबके ऋषिकुण्ड तांय
नौका सें पहुँचावोॅ।
यै ठां सें बारह कोसो पर
अमिय नदी के धारा,
जे हौले सें जाय मिलै छै
गंगा-कूल-किनारा।
वही घाट पर रुकना होतै
ऋषिकुण्ड तांय जैतै,
शृंगीजी केॅ रूप-जाल में
बान्ही तट तक लैतै।
हवौ तलक केॅ पता चलेॅ नै
लहरो तक नै जानैं,
रूपाजीवा मिली-जुली केॅ
ऋषि केॅ यै ठां लानेॅ।
फेनू बेटी शान्ता साथें
हुनकोॅ परिणय होतै,
फेनू नै कभियो भी मालिनी
लोरोॅ सें मुँह धोतै।
मालनिये की अंगदेश की
भाग अवध के जगतै,
दशरथ के सूनोॅ अंगना में
सोहर के सुर लगतै।
शांता के भागोॅ में जगतै
अंगदेश के भाग,
धुलतै फेनू अवध-अंग में
स्वर्णिम सुरभित राग।
बेटी सचमुच घर-आँगन के
भाग्य छेकै, है निश्चित
जेकरोॅ बिन तेॅ परिवारे की
सौंसे जिनगी शापित।
सुयिे लेला बात सभासद
जा! नै देर लगावोॅ,
जेकरा में सुख अंग-अवध के
ऊ संयोग बिठाबोॅ।
दशरथ् हमरोॅ परम मित्र छै
प्राणों सें भी बढ़ी केॅ,
जेकरोॅ चिन्ता दुखित करै छै
दिल दिमाग पर चढ़ी केॅ।
जत्तेॅ जल्दी दूर हुएॅ ई
ओतनै ही अच्छा छै,
एकरै में नै अंग-अवध केॅ
लोको के रक्षा छै।
शांता रोॅ ई ब्याह लोक लेॅ
महामोद के कारण,
सुनोॅ सभासद ई परिणय सें
तीनों ताप निवारण।
अंगदेश ई धन्य जहाँ पर
शृंगी ऋषि विराजै,
शिवधामोॅ सें शृंगीधाम तांय
शिव के डमरू बाजै।
वही भूमि पर सजतै शांता
शृंगी केरोॅ प्यार,
अंग-अवध के सुख के सिन्धू
बनतै पारवार।“