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तैर रहे हैं गाँव / राजेन्द्र गौतम
Kavita Kosh से
धारा उपर
तैर रहे हैं
सब खादर के गाँव ।
टूटे छप्पर
छितरी छानें
सब आँखों से ओझल
जहाँ झुग्गियों के
कूबड़ थे
अब जल, केवल जल
धँसीं कगारें
मुश्किल टिकने
हिम्मत के भी पाँव ।
छुटकी गोदी
सिर पर गठरी
सटा शाख से गात
साँपों के संग
रात कटेगी
शायद ही हो प्रात
क्षीर-सिन्धु में
वास मिला है
तारों की है छाँव ।
मौसम की
ख़बरें सुन लेंगे
टी० वी० से कुछ लोग
आश्वासन का
नेता जी भी
चढ़ा गए हैं भोग
निविदा
अख़बारों को दी है
बन जाएगी नाव ।
घास-फूस का
टप्पर शायद
बन भी जाए और
किन्तु कहाँ से
लौटेंगे वे
मरे, बहे जो ढोर
और कहाँ से
दे पाएँगे
साहूकार दाँव