भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तोॅही कहोॅ शिशिर / ऋतु रूप / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय
Kavita Kosh से
शिशिर
जबेॅ तोरोॅ मोॅन
पकलोॅ बेर आरोॅ नारंगी रं सरस छौं
रस सेॅ भरलोॅ केतारी जकां तोरोॅ प्राण
तोरोॅ देह
चमकतेॅ मोती नाँखि
हीरा के कण नाँखि धवल
तब तोरा सेॅ कैन्हे डरी केॅ
मछली नुकाय जाय छै
भीतर, एकदम भीतर
कैन्हेंनी कहुँ दिखावै छै
शोर मचैतेॅ चिड़ैयां
कहाँ अलापित होय जाय छै, तोरोॅ ऐथै
कोय पुआली तोॅर छिपै छै
तेॅ, कोय रजाय के भीतर।
शिशिर
तोहें जेहनोॅ उपरी सेॅ छौ
होनोॅ भीतरी सेॅ शायत नै छौ
तही सेॅ तेॅ
महीना-महीना आकाश के नीचे सूतैवाला किसान
दिन्हौ नुकैलोॅ रहै छै मोरको मेॅ
कनमुँहोॅ आँखी सेॅ देखतेॅ
तो रोॅ कुहासा के रन्थ केॅ।