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दंगे में बच्चे / आनंद गुप्ता
Kavita Kosh से
राहत शिविरों में
बच्चे पढ़ रहे हैं
बच्चे इतिहास के पन्नों में
ढूंढ रहे हैं अपना शहर
और भूगोल में अपना घर
बच्चे तय नहीं कर पा रहे हैं
अपना ईश्वर।
डर इन बच्चों की दुनिया में
अनचाहे मेहमान की तरह
आकर ठहर गया है
डर ठहर गया है इनकी हड्डियों में
धमनियों में लहू बनकर
और सपनों में बनकर हत्यारा
यहाँ तक कि
सन्नाटे के बीच पड़ोसियों के
पांव की हल्की आहट से भी
डरे हुए हैं बच्चे।
बच्चे समझ नहीं पा रहे हैं
शहर का नया व्याकरण
आदमी की बर्बरता के
जिंदा अवशेष बच्चे
अपने शहर की भाषा के
बदल दिए जाने के
बन रहे हैं चश्मदीद गवाह।
बच्चों के सीने पर
दिख रहे हैं
सभ्यता के दिए
गहरे जख्मों के निशान।