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दग्ध बीज (2) / विमल राजस्थानी
Kavita Kosh से
मुझे ‘दग्धबीज’ होना है
नहीं ‘प्रेय’ के, असली उज्जवल -
‘श्रेय’- मोतियों को ही, जीवन - पथ में-
निहुर-निहुर बोना है
मुझे ‘दग्ध बीज’ होना है
नहीं ‘मुक्ति’ की रंच कामना
यह तो कुछ पल की होती है
शव की माफिक चंद लकड़ियों-
का दग्धित बोझा ढोती है
भूख लगे तो गिटें निवाले
शांत हुई तो ‘मुक्ति’ मिल गयी
मुरझाये आनन की लाली-
इन्द्र धनुष - सी क्षणिक खिल गयी
नहीं ‘आत्मा’ ही, ‘परमात्मा’ -
बन जाने की लगन लगी है
चना-चबेना अजर - अमर हो -
ऐसी शाश्वत क्षुधा जगी है
बना निष्कलुष हँसते - गाते
भार लकड़ियों का ढोना है
मुझे ‘दग्ध बीज’ होना है