दज्जाल / विष्णु खरे
दज्जाल — इस्लामी क़यामत से पहले आनेवाला दानव, जिसका वध ईसा या मेहदी करेंगे। असद जै़दी का आभार, पहले हवाले के लिए।
न यह इस्फ़हान के रस्तक़ाबाद से आया है
न इसका नाम सफ़ी बिन सईद है
इस सदी में मुख्तलिफ़ मुल्कों में
मुख्तलिफ़ इस्मों से नाजि़ल हो रहे हैं दज्जाल
उनकी दोनों आँखें होती हैं अँगूर की तरह नहीं
कबन्ध की तरह
लोग पहले से ही कर रहे हैं इबादत इबलीस की
उनकी आँखों की शर्म कभी की मर चुकी
बेईमानी मक्र-ओ-फ़रेब उनकी पारसाई और ज़िन्दगानी बन चुके
अपने ईमान गिरवी रखे हुए उन्हें ज़माने हुए
उनकी मजबूरी है कि अल्लाह उन्हें दीखता नहीं
वरना वे उस पर भी रिबा और रिश्वत आज़मा लें
मशाइख़ और दानिश्वरों की बेहुर्मती का चौतरफ़ा रिवाज़ है
कहीं-न-कहीं कहत पड़ा हुआ है मुल्क में
क़त्ल और ख़ुदक़ुशी का चलन है
कौन-सा गुनाह है जो नहीं होता
दज्जाल ठीक यही कहता हुआ आएगा
उस दिन लगेगा कि सूरज पच्छिम से उगा है
क्योंकि वहीं से उभरेगा दज्जाल
इबलीस का ज़ाहिद-ओ-आबिद होगा वह
लेकिन उसकी मुख़ालिफ़त का स्वाँग करेगा
कहेगा उसी को नेस्तनाबूद करने उतरा है वह
सारी बदी को ख़त्म करने और नेकी का निज़ाम लौटाने का वादा करेगा
वह बक़्क़ाल शाहे-आदमज़ाद बनने के हौसले में
बेचेगा जन्नत के ख़्वाब कहेगा मेरा ही इन्तिख़ाब करो
और गुमराह क़ौमें उसके हाथों क़दमों और जि़ल्ल को चूमने लगेंगी
दीवानावार उसकी मोतकिद हो जाएँगी
फिर वह ऐलान करेगा कि नबूवत भी उसी की है
और ख़ुदाई भी उसी की
परस्तिन्दों को एक में ही
दोनों के दीदार-ओ-इबादत का सुभीता हो जाएगा
लेकिन दज्जाल अपनी असली किमाश को
कब तक पोशीदा रख सकता है
जब उसका दहशतनाक़ चेहरा सामने आएगा
और वह वही सब करेगा जिसके ख़िलाफ़ उतरने का
उसने दावा और वादा किया था
बल्कि और भी बेख़ौफ़ उरियानी और दरिन्दगी से
तो अगर तबाही से बचे तो ख़ून के आँसू रोते हुए अवाम
ज़मीन पर गिर कर छटपटाने लगेंगे
किसी इब्ने-मरिअम किसी मेहदी किसी कल्कि की दुहाई देते हुए
जो आए भी तो तभी आएँगे जब क़ौमें पहले ख़ुद खड़ी नहीं हो जाएँगी
दज्जाल की शनाख़्त कर शय्याद मसीहा के खि़लाफ़