भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दढ़ियल आदमी / ज्योति शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह दढ़ियल आदमी
जो मेरे सामने कुर्सी पर बैठा है
बुखार है उसे
घूम रहा है उसका माथा
डॉक्टर कहता है कान का पानी हिल गया है
कितना सुंदर लग रहा है वह
बीमारी में आदमी सुंदर हो जाता है
बच्चा हो जाता है
लगता है उसका सिर रखूँ अपनी गोदी में
और उसे बताऊँ
मज़बूत होना ही मर्द होना नहीं है
नाजुक होना भी मर्द होना है
जैसे नाज़ुक होना ही औरत होना नहीं है
अवेध्य होना भी औरत होना हो सकता है
उसके गाल से रगड़ना चाहती हूँ गाल
पर लौटना भी है घर
जहाँ बेटे के लिए बनानी है पराँठा और दही कबाब
पर उससे पहले उसके गंजे होते सिर को
सहलाना चाहती हूँ