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दब गए हैं स्वर यहाँ / दिनेश गौतम

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किस तरह से दब गए हैं स्वर यहाँ,
नोंच कर फेंके गए हैं पर यहाँ।

दाँत के नीचे दबेंगी उँगलियाँ,
है उगी सरसों हथेली पर यहाँ।

टोपियाँ कुछ ख़ुश दिखीं इस बात पर,
कुछ किताबें बन गईं अनुचर यहाँ।

धीमे- धीमे भीगता है मन कहीं,
रिस रही है याद की गागर यहाँ।

मेमना भारी न पड़ जाए कहीं,
शेर को अब लग रहा है डर यहाँ।

एक दिन गूँगी ज़ुबानें गाएँगी,
बात फैली है यही घर-घर यहाँ।

तन रही हैं धीरे-धीरे मुट्ठियाँ,
मुट्ठियों में बंद हैं पत्थर यहाँ।