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दबाव / त्रिलोचन
Kavita Kosh से
भीड़ कस उठी थी, पच्चर से लोग बन गए,
वह दबाव था, जौ भर किसी तरह हिल पाना
अब असाध्य था । खड़े लोग निरुपाय तन गए ।
जो छूटा, छूटा; अब मुश्किल था मिल पाना ।
आगे पीछे अगल बगल का बल झिल पाना
छाती के बस के बाहर था । लोग मर चले ।
जो प्रसून खिलने को थे, उनका खिल पाना
क्रूर काल को नहीं सुहाया, और झर चले ।
क्या करने आए थे क्या क्या असहाय कर चले,
धराधाम से गए । तीर्थ का यही फल मिला;
अपने घर की जगह विवश काल के घर चले;
कल्या चाहने वालों को कल नहीं छल मिला ।
भीड़भाड़ में सकल व्यक्तिबल खो जाता है,
महावीर भी तृण प्रवाह का हो जाता है ।