भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दरसण / सत्यप्रकाश जोशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कांई कांई सम्हाळूं म्हारा कांन्ह !
कांई कांई सम्हाळूं ?
बादीली चूनड़ी नै सिर माथै राखूं
तौ ई नीचै सिरक, सिरक आवै,
माथा रै सिंघासण टिकै कोनी,
माथा री लाज ढकै कोनी,
मिरगानैणां नै रोकूं तो रूकै कोनी।

ओ मोत्यां रौ नवसर हार,
गळा में बांध बांध राखूं-
हिवड़ा सूं लगाय राखूं
तौ ई हठीलौ बिखर-बिखर जावै
कठा लग मोती चुगूं रे कांन्ह !
कठा लग लूळ लूळ चुगूं रे कांन्हं ?
ओ सुरंगौ सोवन कंदोरौ
कमर सूं लिपटाय राखूं,
कड़ियां सूं घेर घार राखूं
तौ ई रसीलौ तूट तूट जावै।
कठा लग तूटयोड़ी कडियां नै बीणूं रे कांन्ह !
कठा लग भेळी करूं?

ए रूपा रा बिछिया बाजणा
बांधूं तो पगां लागूं,
खोलूं तौ पगां लागूं,
तौ ई नखराळा बिखर-बिखर जावै।
कठा लग घूघरा अंवेरूं रे कांन्ह!
कठा लग बिछिया अंवेरूं?