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दर्द / संतोष श्रीवास्तव

दर्द, ज़िन्दगी में पैबिस्त है
ज़िन्दगी में भी
ज़िन्दगी के बाहर भी

दर्द जब कायनात में उठता है
तबाह हो जाती है दुनिया
पहाड़ दर्द से बिलबिला कर
लावा उगलते हैं
नदियाँ कगार तोड़ देती है
आसमान का दर्द
कहर बनकर टूट पड़ता है

दर्द जब समाज में उठता है
क्रांति आ जाती है
तख्ते पलट जाते हैं
सरकार बदल जाती है

दर्द जब बदन में उठता है
पसलियाँ चीर देता है
माथे के पठार से
पांव के समंदर में कूद जाता है
दर्द ही दर्द
बेहिसाब
और दर्द जब दिल में उठता है
खुदा रो पड़ता है