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दर्द का अर्थ / बाल गंगाधर 'बागी'
Kavita Kosh से
मूसल1 हाथ से अब नहीं चलते
ओखल आंसू से अब नहीं भरते
कमर की पीड़ा गीतों के संग
मुख हवा का कान नहीं भरते
चलते थे कभी यही दना-दन
टापों की तरह चूड़ी की टूटन
मुस्काये नहीं, दुल्हन क्यों कर?
जब पहली रात हो ठाकुर घर
क्या बीत रही होगी उस पर?
पति सकुचाये लज्जा मंुह ढक
हो खून खौल पानी-पानी
जब चर्चा हो हर गांव शहर
विद्रोही मन हिमखण्ड-खण्ड
असहाय हाथ की लाठी पर
क्यों उठती नहीं लाठी कैसे
वे उठते गिरते संभल-संभल
उसके जैसे कई लोग थे जब
ललकार मिले किससे कैसे?
बिन संसाधन कोई युद्ध नहीं
पर वह समझौता करता कैसे?
यह इति का झूठा मान्य नहीं
कुछ तो विद्रोह हुआ होगा
इतिहास जब नहीं लिखे सवर्ण
इतिहासकार बिका होगा