दर्द तीर-कमान का / बुद्धिनाथ मिश्र
जंगलों में लग गई यह आग कैसी ?
जल रहा है धर्म तक सीवान का ।
गर्म पत्थर पर तड़पती सर्पिणी जैसी
‘स्वर्णरेखा’ अब कभी झूमर नहीं गाती
ख़्वाब आते हैं हज़ारों फूल-से, लेकिन
राम की सुधि में तनिक वह सो नहीं पाती ।
अवतरण तो दूर, गहरे धुँधलके में
खो गया है अर्थ तक भगवान का ।
पेड़ जिनकी छाँह में सुख-दुख सभी काटे
अब सलीबों की तरह दिखते पठारों पर
आर्द्रता मन की, तपन तन की, शिलाएँ भी
पिघल उठती हैं हवा के चमत्कारों पर ।
धर्म पहले कवच-कुण्डल कर्ण का था
आज बस ताबूत है सुलतान का ।
दूर तक है सिलसिला, ढहते पहाड़ों का
विंध्य ! अबकी तुम झुके अवसाद के आगे
क्या मुनादी फिरी रातोरात, पारथ के
द्वार पर चित्रित सभी गज-सिंह उठ भागे ।
रीझना आता सभी को सरहुलों पर
कौन समझे दर्द तीर-कमान का ।