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दवा वाले दिन / एकांत श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
अब खाट से उठेंगे मां के दुःख
और लम्बे-लम्बे डग भरकर
कहीं गायब हो जायेंगे
और जो बचेंगी छोटी-मोटी तकलीफें
उन्हें बेडियों की तरह
वह टांग देगी घर की खपरैल पर
अब कुछ दिन सुनायी देगी उसकी असली हंसी
कुछ रातें बिना करवटों के होंगी
जिन्हें वह खांसकर नहीं बितायेगी
और पसलियों का दर्द
नहीं छुपायेगी हंसी के रंग के नीचे
कुछ दिन पके महुओं-सी टपकेंगी
उसकी बातें...टप्प.....टप्प......
और महमहा उठेगी पृथ्वी
दिन एक लम्बे सपने में बदलकर
थोड़े-थोड़े रोज होंगे सच
और उसकी गुनगुनाहट में भीगकर
अमर हो जायेंगे.