दस / डायरी के जन्मदिन / राजेन्द्र प्रसाद सिंह
नवीन बीन के सुवर्ण-तार, तार बोलते!
निशा ढली, जगी-उगी नई उषा सुहागिनी,
अतीत-गीत खो गये, मिली नवीन रागिनी,
भरे प्रसून-राशि डाल-डाल में विनम्रता,
स्वदेश के मुकुट-किरीट पर उगी स्वतंत्रता!
मृदुल मलय-समीर-ताल रश्मि-द्वार खोलते!
नयी उठान सिन्धु की मचल रही कग़ार पर,
कठोर शैल-खंड तोड़ती हुई पखार कर,
पहाड़ पर चढ़े लहर-लहर सुधा-समुद्र की,
शमित हुई झिपे-मुंदे प्रदीप्त आँख रूद्र की!
शिखर-शिखर पुलक-सिहर निहार ज्वार डोलते!
विजय हुई, मुखर क्षितिज हुए सुगीत बाँचते,
शरीर की खुशी यही मगर न प्राण नाचते,
समष्टि का प्रमोद देह का विनोद ही बना,
समग्र सुख समाज का हृदय-पयोधि से छना!
सभी यही कुभोग ढूंढते, प्रताप तोलते!
प्रतिध्वनित हुआ अनन्त व्योम शंख-नाद से,
खुले नहीं श्रवण विमूक अश्रु के विषाद से,
बनावटी बनी मनुष्य की वियुक्त ज़िंदगी,
हँसी दिखावटी, अशेष एक आग-सी लगी!
अतृप्ति पत्र में अझंद तृप्ति हम टटोलते!
उठो, अगेय गीतिमय! नवीन दिग्चरण धरो,
नवीन भाव-राशि नवीन काल-क्षण करो,
सुवर्ण तार से प्रकाश-गान गूँजते रहें,
अगम्य चित्र-बीच सन्धि-बिन्दु सूझते रहें!
चलें अनेक रंग-बीच एक गन्ध घोलते!
[१९४८]