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दसमय की धारा तेज बहुत है / हरिवंश प्रभात
Kavita Kosh से
समय की धारा तेज बहुत है
अपनी नाव सम्हलने दो,
जीवन को यूँ आपस में
समझौता करके चलने दो।
तेरे मेरे बीच बहस होती रहती है कभी-कभी
प्रेम ज़रूरी, राय अलग होती रहती है कभी-कभी,
फिर भी असमंजस के ऊपर
आस का दीपक जलने दो।
ऊँच-नीच आवाज़ें कर्कश, सारे शपथ भुला देना,
हाथ पकड़ लेना मेरा और हल्की चपत लगा देना,
आये गर तूफान बीच में
कभी न गफलत पलने दो।
बगिया में कुछ लाल, हरे फूलों की खुशबू रहे सदा,
तुलसी आंगन में झूमे, मिल्लत हरसू रहे सदा,
संकट छोटा और बड़ा हो।
उसको सहज निकलने दो।
कैसे तुम्हें बताऊँ कुछ घड़ियाँ अलगाव बढ़ा देतीं
एक मामूली सी बात हमारे बीच तनाव बढ़ा देती
अहम फैसला लेने में
सूरज को नया निकलने दो।