दस्तूर / हबीब जालिब
दस्तूर<ref>संविधान</ref>
दीप जिसका महल्लात<ref>महलों</ref> ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को लेकर चले
वो जो साए में हर हर मसलहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्हे बेनूर को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
मैं भी ख़ायफ़ नहीं तख्त-ए-दार<ref>फाँसी का तख़्ता</ref> से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़ियार से
क्यूँ डराते हो जिन्दाँ<ref>जेल</ref> की दीवार से
ज़ुल्म की बात को, जेहल की रात को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
फूल शाख़ों पे खिलने लगे, तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे, तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे, तुम कहो
इस खुले झूठ को जेहन की लूट को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
तूमने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फुसूँ
चारागर मैं तुम्हें किस तरह से कहूँ
तुम नहीं चारागर, कोई माने मगर
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता