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दानलीला / भाग - 5 / सुंदरलाल शर्मा

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दोहा
खात खात सिट्ठाय-गै, दूध दही औ भात।
नइ तेखर संग काम है, लेहौं यही जगात॥

चौपाई
पातर फूहर गोंठ सुनिन जब। मुच मुच-मुच मुच करे लगिन-सब।
कोनो कोनो मुंह बिचकाइन। कोनो भऊं नचाय पराइन॥
कोनों कोनो आंखिन मारिन। कोनो भुंय्या तनी निहारिन॥
कौनो गुदगुदाय मुसकावैं। फुसुर फुसुर सब्‍बो गोठियावैं॥
नइ अय कुछू ठिकाना दाई !। सुने ओ! कैसे कथैं कन्हाईॽ॥
एखरे खातिर चोली छूथै। झुरमुट करथै लूसे लेथै॥
जान गयेन मनसूभा भइ गय। दूध दही के लालच नइ अय॥
मात गहन मस्ती में मोहन। गंज बेरी में गम पाये हन॥
चलो अओ जसुदा मेर जाबो। बेटा-के गुण ला-गोंठियाबो॥
घुसड़ अभी जाहै सब्‍बो हर। सबो बड़े आपन आपन घर॥
आज सबो मरजाद अओ! गै। यही लुवाठ गौंटिया हो-गै॥
सुन्‍ना पा के हुरमत लेथै। मुँह आथै तौने कहि देथै॥
कखरो इज्जत हर नइ बांचै। छुच्छा नगरा हो-के नांचै॥

दोहा
गोकुल-में हाड़ा नई, अपटत हवन घलाय।
गाज परै आगी लगै, काले चलब पराय॥

चौपाई
सबो रकम-में हम-मन हारेन। दही दूध के नाव बिसारेन॥
धोकर धोकर के पांव परत हन। दंडा शरण जान दे मोहन!॥
डंगनी अकन बेर है बांचिस। भइगे मूड़ा पूर गइस बस॥
हाहा! घुंचो अभी रोको-मत। डौकी मन-के कतका इज्जत॥
डौका जात आव तुम टूरा। फूटे बर चूरी ना चूरा॥
घर-में दाई गारी देहै। बंधवा एकक लेखा लेहै।
तब-का? ओखी आज बतावो। कब-ले लबरी होय खटाबो॥
सुनत श्याम मुसक्‍याय अगारी। आइन पकरे ठेंगा भारी॥
तुमला कहूं छोड़ मैं देहौं। राजा मेर फेर-का? गोंठियेहौं।
लेखा जभे मागिहैं मोला। कहा ले लान पटाहौं वोला॥
ऐसन बात सुनत ग्वालिन मन। सब्‍बो भकभकाय के हांसिन॥
अब ठौंका रसदा-में आयेव। अब कैसे राजा ला डेरायेव॥

दोहा
चौंके रहेव अघात तुम, छेंवट आयेव ठांव॥
कतको हरिना कूदै, परिहे भुय्यां पांव॥

चौपाई
मोहन कहिन सुनौ रौताइन! राजा कंस ला कौन डेराइन॥
हम जो राजा-के चाकर अन। तेला सुनौ! बतावत हम हन।
काम महीप नाव ओखर है। राज तीन लोकन के भर है।
भरती चढ़ती अयन जवानी। तौन आय ओखर रजधानी॥
लिगरी आंखी दूत लगाइन। मोला बीरा देय पठाइन॥
तेखर भेजे ले मैं आयेंव। तुम्हला इहां जगात सुनायेंव॥
सुनत गोंठ ऐसन रौताइन। सब्बो सुरता चेत भुलाइन॥
कोनन? काबर कहां खड़े हन?। रहिस नहीं सुरता एक्को-ठन॥
आंखी गइन मुंदाय सबो-के। मन भीतर हरि मिलन जमो-के॥
होइस तौन बखत सुख जैसे। तेला सुनो! कहौं मैं कैसे॥
साध नहीं बांचिस थोरको अस। आठो अङ्ग जुड़ाय गइस बस॥
गइन अघाय रहिस बांकी-ना। थप थप टपके लगिस पसीना॥
सुक सुक सुक सुक लागे लगिस। नस नस नस नस भींद गइस बस॥
हरि तब तीर लइन छबि बाहिर। आंखी खोल निहारिन सब फिर॥
गइन मोहाय देख मोहन ला। सपना असन भइन सब झन-ला॥
कहे लगिन तब सब रौताइन। कोनो नइ तुम्हला गम पाइन।

दोहा
कै तुम ही बैगा हरी, डारेव टोना आय।
थोपनी ऐसन थोप-के, मन-ले गयेव चोराय॥

चौपाई
मोहन सुन्दर श्याम! सुनौ अब। ग्‍वालिन हवन तुम्हार शरण सब॥
करिहौ क्षमा जउन कहि पारेन। हम तुमला सर्बस दे डारेन॥
चाहौ करौ प्राण है हाजिर। दही-दूध के बात कउन फिर॥
साध हमार पुरोयेव मोहन। येखर ऋणिया रहिबो सब झिन॥
आवौ! बैठो! दोना लावौ! जतका चाहौ वोतका खावौ॥
सुनत बात हांसत हैं मोहन। बैठे गइन ले-के संगी मन॥
आपन आपन दही निकारिन। रौताइन मन परुसे लागिन॥
मोहन खावैं सखा खवावैं। कइसे कहौं कहत नड़ आवैं॥
बांधे मौर मूंड़के माहीं। पहिरे हैं साजू मजुंराही॥
कन्हिया-में-खौंचे-बंसुरी ला। देखत-में मोहत हैं जी-ला॥
दूनो गोड़ पैजनी सोहैं। सोभा लिखे सके अस को-है?॥
हरि तब राधा तनी निहारिन। आंखी मिलत हांस दूनो पारिन॥
राधा सब-के नजर बचावैं। कोनो हंसत देख झन पावैं॥
ठाढ़े भइन फेर मुख राधा। चितवैं नयन कनेखी आधा॥
देख मने मन-में सुख पावैं। एते हंसैं वोते गौंठियावैं॥

दोहा
कहे लगिन मुसक्याय तब, मोहन सुन्दर श्याम॥
आज दही अड़गंज तुम, सबो खवायेव राम!॥
राध-मेर लेवना हरि मांगत। चीखौं तो तुम्हर कस लागत॥
सबके-दुहनी के मैं खायेंव। नइ तुम्हार चीखा-ला पायेंव॥
दिखथै बने सवो मेर के-ले। लालच लगत हवै देखे-ले॥
कइसे उलथै दया खवाहौ?। के हम-ला छुच्छा टरकाहौ॥
नस-नस भींद गइस छिन माहीं। राधा रहे-सकिन-सुन-नाहीं॥
लेवना एक थपोल उठाइन। मुच-मुच करत अगाड़ी आइन।
ओंठ हलाय डार मुह देइन। गाल पिचक आपन करि लेइन।
हरि चबुलावत मूंड हलाइन। बढ़-के मजा सबो ले पाइन।
कहिन गोपाल बहुंत मैं खायेंव। येखर नहीं बरोबर पायेंव॥
कोनो दगरा पानी डारे। कोनो लेवना हवैं निकारे॥
कखरो दही मही अम्मठ है। सेर-भरके मैदा मिलवट है॥
कैसनो कोनो हजार बतावैं। तोर सवाद-ला-नइ कोनो पावैं॥
ऊपर ले देखत में सादा। है मिठास सब्बो ले जादा॥
राधा आभा बचन सुनिन जब। गतर गतर-में भेद गइस सब॥
सुखमें आठो अंग जुड़ाइस। जइसे तिनहा हंडा पाइस॥

दोहा
रोंवा हो गय ठाढ़ सब, आनंद कहे न जाय॥
आंखी ले आंसू घलो, बहे लगिस सुख पाय॥

चौपाई
जेखर मन-में जैसने आइस। तैसन ते-हर श्याम जेंवाइस॥
रस बस कर लौटिन आपन घर। सब-के प्राण-ज्ञान मोहन-पर॥
श्याम सरूप त्रिभंग अंग जस। सब-के-मन-में रहिस वही बस॥
कोनो नइ कखरो गम पावैं। बही बरोबर रेंगत जावैं॥
फोकट-के गोटी गड़ डारैं। कोनों कांटा गोड़ निकारैं॥
कोनो ला चूरा कसकावै। कोनो पैरी पांव चढ़ावै॥
उलट उलट के आंखी मारैं। ओढ़र कर-के सबो निहारैं॥
चोहल करें रमूज मड़ावैं। तोला गोई! ठौंका भावैं॥
हरि के कहैं चरित्तर फिर-फिर। जैसे जैसे भाव करिन-हरि॥
झझक जांय सब्बो-झन-रहि-रहि। घर कोती बर पांव उठै नहि॥
ऐसन सबो मया-में साने। रात अघात जान नइ जाने॥
ब्रह्मा जेला ध्यान लगावैं। महादेव जेखर गुण गावैं॥
कोन सुने अरु कोन बतावै। गोकुल तउन जगात उघावै॥
अपन भगत खातिर भगवाना। करथैं चरित अनेक विधाना॥
जेखर जइनस भाव-रथै मन। तेला तइसन मिलथैं मोहन॥
देखैं नन्द अपन बेटवा अस। रौताइन मन जीवन धन-जस॥
काल बरोबर कंस निहारै। भगत प्रगट भगवान विचारैं॥
अपन भगत बर सरग बिहाई। मनखे लीला करिन कन्हाई॥
जेमा मनुवा गाहैं सुनिहैं। सगुण समझि के मोला गुनि हैं॥

दोहा
मन-थिर कर के जउन हर, भज लेहै एक बेर॥
नइ आहै निस्तुक कहौं, ते भव सागर फेर॥
है ये लीला श्‍याम-के, जो सुनि हैं चितलाय॥ हरि ठेंगा दुहनी धरे, तेखर होंय सहाय॥

कवित्‍त
छत्तिस के गढ़ के मझोत एक राजिम, सहर जहां जतरा महीना मांघ भरथै॥
देस २ गांव २ के जो रोजगारी भारी, माल असबाब बेंचें खातिर उतरथै॥
राजा और, जमीदार मंडल किसान, धनवान, जहां जुरके जमात ले निकरथै॥
सुन्दर सुलाल द्विजराज नाम हबै एक, भाई! सुनौ तहां कबिताई बैठि करथै॥

त्रोटक छन्‍द
तउने हर एला बनाइस है। अवखाद बरोबर गाइस है॥
गलती कहुं एमा देखा परि हैं। लेड़गा मोला जान क्षमा करि हैं।

काव्‍य
छत्तिस गढ़ भाषा बिभूषि निर्मान कीन्‍ह यह॥
नहि कछु काव्‍य कला प्रचूर पाँडित्य मोर महँ॥ पढ़ि उदार उपकार उचित यद्यपि कछु मानै॥ सेवक श्रम सार्थक सुभाग आपन तब जाने॥

दोहा
सम्‍मत दृग रस अंक शशि, तिथि तृतिया गुरुबार॥ कृष्‍णपक्ष आसौज मह, भयेउ ग्रन्‍थ तय्यार॥

॥इति शुभं भूयात्॥