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दारचा-पुल / कुमार कृष्ण
Kavita Kosh से
जितनी बार ले जाता हूँ मैं
इस ओर से लोगों को उस ओर
मैं थरथराता हूँ उतनी ही बार
कांपने लगती हैं मेरी फौलादी बाहें
मैं मोमो पकाते, दाल-चावल खिलाते-
दोरजे की उम्मीद हूँ
मैं शापित पहाड़ों के बीच
पैरों से निकलने वाली अकेली आवाज़ हूँ
कोई नहीं बांटता मेरा अकेलापन
लद्दाखी कुर्ता पहनकर
जब चाँद आता है दीपक-ताल में नहाने
हम दोनों
इशारों-इशारों में करते हैं बातें रात भर
चाँद जानता है
मेरे पास है लोहे का लम्बा कोट
मैं पहनता हूँ उसे हर मौसम में साल भर
मैं निर्जन पहाड़ों में लोहे की आवाज़ हूँ