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दिन गुज़रते जा रहे हैं / मधु शुक्ला
Kavita Kosh से
दिन गुज़रते जा रहे हैं ।
फूल से खिलकर सुबह नित
शाम झरते जा रहे हैं।
भोर के संग उमगता मन,
साँझ के संग डूब जाता,
हाथ से जैसे समय का
एक हिस्सा छूट जाता ।
हम इधर बैठे उड़ानों
के नए सपने सजाए,
और चूहे समय के नित
पर कुतरते जा रहे हैं ।
भाग फल आता न कोई,
अंक सम्यक कट रहा है ।
ज़िन्दगी का गणित जुड़ने की
जगह बस घट रहा है ।
छल रहीं हैं उम्र की
ऊँचाइयाँ कुछ इस तरह से,
सीढ़ियां चढ़ते हुए
नीचे उतरते जा रहे हैं ।
जा रहे हैं उँगलियों से रेत
पर लिख - लिख मिटाते,
अब कहाँ ? कोई कि जिसको
दुःख भरे क़िस्से सुनाते,
वक़्त की इन आँधियों में
थरथराते पात से हम,
रुख पकड़कर, बस, हवा के
साथ उड़ते जा रहे हैं ।