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दिन झर गया / केदारनाथ अग्रवाल

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दिन झर गया

जैसे फूल,

संध्या समय

आकाश के

श्याम तरु से

धरातल पर,

न रही गन्ध,

न रही छटा,

आई रात

जैसे घटा

उमड़ आई

बरसात की,

खुली कबरी,

अलक छटे,

कामिनी के

ढँके कुच के

कनक-कलसे

मेरु भू के,

यह त्रियामा

त्रिया तम की,

वासना की

अधवामा--

मुझे अपने

भरे भुज में

कसे उर से

विवश-व्याकुल

छल रही है ।