भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिनान्त / बाद्लेयर / सुरेश सलिल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नीरस और धुन्धली रोशनी में वह
दौड़ती है, नाचती है और तड़पती है बेवजह —
ज़िन्दगी बेहया और तीखी ।

और इस तरह, जैसे ही क्षितिज पर
उभरती है विषयासक्त रात
सब कुछ का शमन करती — भूख का भी

कवि कहता है स्वयं से : ‘अन्त में !
मेरी आत्मा, मेरी रीढ़ की भाँति, उत्कट भाव से
निवेदन करती है विश्राम के लिए
अन्त्येष्टि के सपनों-भरे हृदय से

मैं लेट जाऊँगा पीठ के बल
लपेट लूँगा ख़ुद को तुम्हारे पर्दों में,
ओ स्फूर्तिप्रद अन्धकार !’

अंग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल