दिल के आँसू पे यूँ फ़ातिहा पढ़ना क्या / संतलाल करुण
दिल के आँसू पे यों फ़ातिहा पढ़ना क्या वो न बहते कभी वो न दिखते कभी
तर्जुमा उनकी आहों का आसाँ नहीं आँख की कोर से क्या गुज़रते कभी |
खैरमक्दम से दुनिया भरी है बहुत आदमी भीड़ में कितना तनहा मगर
रोज़े-बद की हिकायत बयाँ करना क्या लफ़्ज़ लब से न उसके निकलते कभी |
बात गर शक्ल की मशविरे मुख्तलिफ़ दिल के रुख़सार का आईना है कहाँ
चोट बाहर से गुम दिल के भीतर छिपे चलते ख़ंजर हैं उसपे न रुकते कभी |
जिस्म का ज़ख्म भर दे ज़माना मगर ज़ख्म दिल का कभी भी है भरता नहीं
रूह के साथ जाते हैं ज़ख्मेज़िगर सफ्हए-ज़ीस्त से वो न मिटते कभी |
आँसुओं की लड़ी टूट जाने पे भी जो गए याद उनकी है जाती नहीं
याद जलती है सीने में जब बाफ़ज़ा रातें होती नहीं दिन न ढलते कभी |
दर्द ऐसी जगह जो परीशानकुन दिल के दरम्यान ही घर बनाता कहीं
वक्त की चादरों से ढका बेतरह पर ख़लिश से दिलोदम न बचते कभी |
शब्दार्थ :
सफ्हए-ज़ीस्त = जीवन-पृष्ठ
बाफ़ज़ा = वातावरण पाने पर, माहौल के साथ, खुलापन मिलने पर