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दिल जो न कह सका उसे आँखों ने कह दिया / ज्ञानेन्द्र मोहन 'ज्ञान'
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दिल जो न कह सका उसे आँखों ने कह दिया।
दिन की थकन को चुपके से रातों ने कह दिया।
तू तोड़ तो रहा है मुझे किर्च किर्च कर,
मेरी चुभन को याद कर शीशों ने कह दिया।
कलियों को डर था लोग मसल दें न आज ही,
बेफिक्र होके झूम ये काँटों ने कह दिया।
थे तो चले वो राज़े मुहब्बत को छिपाने,
उनकी हरेक बात को नज़रों ने कह दिया।
है 'ज्ञान' चमत्कार कि बहरों ने सब सुना,
अंधों ने देखभाल की गूंगों ने कह दिया।