भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिल धड़कते हैं अभी / विपिन सुनेजा 'शायक़'
Kavita Kosh से
दिल धड़कते हैं अभी पर भावनाएँ मर गयीं
वेदनाएँ बढ़ गयीं, संवेदनाएँ मर गयीं
देह की चादर को ताने सो रही हर आत्मा
ज्ञान बेसुध सा पड़ा है, चेतनाएँ मर गयीं
एक भी नायक नज़र आता नहीं इस भीड़ में
क्रान्ति होने की सभी संभावनाएँ मर गयीं
जंगलों पर दिन-दहाड़े चल रहीं कुल्हाड़ियाँ
सिंह बैठे हैं दुबक कर, गर्जनाएँ मर गयीं
कामना उनको ही पाने की न जब पूरी हुई
अब नहीं कुछ माँगना, सब कामनाएँ मर गयीं