दिल्ली में पिता / सुशान्त सुप्रिय
पिता से जब भी मैं कहता कि
बाबूजी, कुछ दिन आप मेरे पास आ कर
दिल्ली में रहिए
तो वे हँस कर टाल जाते
कभी-कभी कहते --
बेटा, मैं यहीं ठीक हूँ
लेकिन मैं कहाँ मानने वाला था
आख़िर जब नहीं रहीं माँ तो
'गाँव में अकेले कैसे रहेंगे आप?'
यह कह कर
ज़िद करके ले आया मैं
दिल्ली में पिता को
किंतु यहाँ आ कर
ऐसे मुरझाने लगे पिता
जैसे कोई बड़ा सूरजमुखी धीरे-धीरे
खोने लगता है अपनी आभा
गाँव में पिता के घर के आँगन में
पेड़ ही पेड़ थे
चारों ओर हरियाली थी
किंतु यहाँ बाल्कनी में
केवल कुछ गमले थे
बहुमंज़िली इमारतों वाले
इस कंक्रीट-जंगल में तो
खिड़कियों में भी जाली थी
'बेटा, तुम और बहू
सुबह चले जाते हो दफ़्तर
लौटते हो साँझ ढले
पूरा दिन इस बंद मकान में
क्या करूँ मैं?'
दो दिन बाद उदास-से बोले पिता
'आप दिन में कहीं
घूम क्यों नहीं आते?'
--राह सुझाई मैंने
किंतु अगली शाम
दफ़्तर से लौटने पर मैंने पाया कि
दर्द से कराह रहे थे पिता--
'क्या करूँ, लाख कहने पर भी
बस-ड्राइवर ने स्टाॅप पर
बस पूरी तरह नहीं रोकी ।
हार कर चलती बस से उतरना पड़ा
और गिर गया मैं'--
दर्द से छटपटाते हुए बोले पिता
कुछ दिनों बाद जब ठीक हो गए वे तो
पूछा उन्होंने-- "बेटा, पड़ोसियों से
बोलचाल नहीं है क्या तुम्हारी?"
मैंने उन्हें बताया कि बाबूजी,
यह आपका गाँव नहीं है
महानगर है, महानगर
यहाँ सब लोग
अपने काम से काम रखते हैं । बस ।
यह सुनकर उनकी आँखें
पूरी तरह बुझ गईं
उनकी स्याह आँखें
जो कुछ तलाशती रहती थीं
वे चीज़ें यहाँ कहीं नहीं मिलती थीं
अब वे बहुत चुप-चुप
रहने लगे थे
कुछ दिन बाद एक इतवार
मैंने पिता से पूछा--
'बाबूजी, दशहरे का मेला देखने चलिएगा?
दिल बहल जाएगा।'
वे मुझे कुछ पल एकटक देखते रहे
उनकी आँखों में संशय और भय के सर्प थे
किंतु मैंने उन्हें किसी तरह मना लिया
मैदान में बेइंतहा भीड़ थी
पिता घबराए हुए लगे
उन्होंने मेरा हाथ कस कर पकड़ रखा था
अचानक लोगों के सैलाब ने
एक ज़ोरदार धक्का दिया
मेरे हाथों से उनका हाथ छूट गया
लोगों का रेला मुझे आगे लिए जा रहा था
पिता मुझसे दूर हुए जा रहे थे
मुझे लगा जैसे ज़माने की रफ़्तार में
पीछे छूटते जा रहे हैं पिता
मैं पलटा किंतु तब तक
आँखों से ओझल हो गए पिता
महानगर दिल्ली में
खो गए पिता...