भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिवाली आई है / उषा यादव
Kavita Kosh से
झिलमिल जलते दीप,
दिवाली आई है।
खुशियों की सौगात,
अनूठी लाई है।
हँसता है आलोक,
मुँडेरों पर, छत पर।
जागर-मगर चाहूँदिशि,
उजियाली छाई है।
पकवानों की खुशबू,
उड़ती है घर-घर।
चूल्हा चढ़ी कढ़ाई
भी इतराई है।
है अनार, फुलझड़ी
और राकेट इधर।
उधर नाचती चरखी
सबको भाई है।
नए-नए कपड़ों में
बच्चे सजे हुए।
नई चमक सबके
चेहरे पर छाई है।
दिवाली है या फिर
पर्वों की रानी।
छम-छम करती उतर,
धरा पर आई है।