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दिव्य दान दो देव कि जिस से मन शीतल हो / रंजना वर्मा

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प्रकृति पुरुष परमेश्वर के चरणों में नत हो नमन करूं मैं
दिव्य दान दो देव कि जिससे मन शीतल हो॥

आँखों में आँसू ममता के
साँसो में जीवन का स्वर हो,
धड़कन में हों स्नेह-सरगमें
पथ प्रशस्त उन्नत भास्वर हो।

जीवन-धर्म बने पर-सेवा दुख न किसी का देख सकूँ मैं
मन हो इतना सुंदर जितना ताजमहल हो।
दिव्य दान दो देव की जिससे मन शीतल हो॥

कर्म अनवरत में कर तत्पर
पग में लगन भरी शुभ गति हो,
आग पराई में कर सेकूँ
कभी ना ऐसी कुटिला मति हो।

संघर्षों के झंझा आँधी करने को विचलित यदि आयें
इतनी दृढ़ता मिले हिमालय यथा अटल हो।
दिव्य दान दो देव कि जिससे मन शीतल हो॥

रजनीगंधा हो सांसों में
अधरों पर चंदन मुस्कानें,
शीतल सुखद स्पर्श बने
वाणी में अगणित मधुर तराने।

सबकी पीर भरूं आँचल में खुशियाँ बांटू भर-भर झोली
इतनी पावन बनूँ कि जैसे गंगाजल हो।
दिव्य दान दो देव कि जिससे मन शीतल हो॥

नयन रहे नीराजन गीले
मन में अलस ह्रदय में पीड़ा,
भरे बादलों-सा अंतरतम
हास करे पर मुख पर क्रीड़ा।

सुख का कण-कण बंटे सभी में दुख की रहूँ अकेली भागी
इतनी गहरी बनूँ की जितना सागर तल हो।
दिव्य दान दो देव कि जिससे मन शीतल हो॥

बूँदों भरी पवन हो जो तन मन सिहरा दे,
हर उदास के मन पर सुख सीकर बिखरा दे।
ओस बनूँ उपवन में खिली सुमन पाँखों पर ऐसा यौवन मिले कि जो तन मन निखरा दे।

अणु अणु मिटूँ सदा परहित मैं क्षण-क्षण हो अर्पित अग जग को
ऐसा जीवन मिले कि हर एक साँस सफल हो।
दिव्य दान दो देव कि जिससे मन शीतल हो॥