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दीपदान / विमलेश शर्मा

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बुदबुदाते मन ने थपक देते हु्ए एक टोक दी थी
ठहरना -सोचना-गुनना
कि क्या हर धूप तल्लीन खिल पाई है
और छंद की तरह हर शब्द ने लय पाई है?
रूपचौदस की साँझ
हरसिंगार को झरते देखने से पहले
उस डाल पर ठिठके
मेरे आत्मज कौस्तुभमणि पुष्प से यही तो बतिया रही थी
कि तुलसी चौरे पर दीपता वह दीया कुछ कह उठा
हवा के झोंके से प्रकम्पित
वह जल रहा था अकम्पित
पर ओट थी उसे
नेह की, विश्वास की एक आस की
उसके पास एक संदेशा था
रीतती बाती का , फैले उजास का
तिरते ताप का
और दीपदान का
मानो मुदित मन से वह कह रहा था कि
प्रार्थना के समवेत स्वरों में
एक स्वर मेरा भी मिला लो।
(यह ‘भी’ निपात जाने क्यों सदा उपेक्षित सा लगा है मुझे)
इस सीख में एक दीठ थी
करुणामय की कोई प्रीति थी
कि उठो,सिरजो, गाओ
सींचो इस परिवेश को
चित्त के इस पंछी को
चिंतन का विचार देकर
कि तुम्हारा चलना
किसी के लिए प्रेरक बन जाए
कि हास शायद उसे
यह मन दे जाए
जिस पर तनिक भी आभा दु:ख की है
टेक देकर उसने कहा चलो अनवरत
कि मुझे विदित है चलने में तकलीफ़ तो होती है
पर यह आत्मोत्सर्ग भी पंक्ति के लिए
संतति के लिए
उस प्रेम के लिेए
जो काल क्षितिज के उस पार सिर्फ़ तुम्हारे लिए खड़ा है
कि तुम आओ और वह तुम्हारी माँग सूरज से सजा दे !