दीपावली / राधेश्याम ‘प्रवासी’
राम की दिग्विजय दीपावली दिपेगी,
पाप का रावण सदा जलता रहेगा!
बच न पायेगी पिशाची वृत्ति लंका
आज मारुति चल पड़ा होकर सजग है,
दानवी को लक्ष्य करके रूद्र का
खुल उठा प्रलयंकरी प्रज्वलित दृग है,
सत्य तो शिव सुन्दरम् का रूप है,
असत को अभिशाप ही मिलता रहेगा!
है असम्भव, इन्द्रजित की शक्ति कैसे,
वीर अंगद की प्रतिज्ञा तोड़ देगी,
है असम्भव, धरणि कैसे दृढ़ व्रती के
चरण तल को सहज में ही छोड़ देगी,
बाँध करके सेतु बाधा सिन्धु पर,
राम का अभियान यह चलता रहेगा!
आज ज्योतिर्मय हुए है दीप वह
आँधियों में जो कभी बुझते नहीं हैं,
उठ चुके हैं आज फिर दृढ़तर कदम
लक्ष के इस पार जो रूकते नहीं हैं,
शक्ति संचित है युगों के स्नेह की,
प्रलय में आलोक यह पलता रहेगा!
बुझ चलेगी टिमटिमाती तारिकायें
स्वर्ण संस्कृति का सबेरा आ रहा है,
जागरण का मंत्र भर कर के स्वरों में
आज तनमय हो प्रवासी गा रहा है,
कामना का यह कमल मरुभूमि में,
चेतना लेकर नई खिलता रहेगा!!
मधुर लय है, स्वर है, दर्द भरा क्रन्दन है,
भाव के साथ ही उर का छिपा स्पन्दन है,
बीन का ठाठ विकृत, तार है टूटे गायक
कैसे गाओगे छिपा बेबसी का क्रन्दन है!
दरिंदगी से इन्तकाम अभी बाकी है,
प्यार की एक सुबह-शाम अभी बाकी है,
मय में डूबे हुए मयखाने के हालावादी
दीनता के जहर का जाम अभी बाकी है!
तेरी अन्दाज़ ही दुनिया की कहानी बन जाय,
आदम आन की तलवार का पानी बन जाय,
फूँक दे आग को मुर्दा रगों के ताने में
जिसको छू करके बुढ़ापा भी जवानी बन जाय!