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दीपावली १९७५ / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
दिया भयभीत-सा
क्यों जल रहा है ?
वही दीवार है त्यौहार है
क्या बात है ऐसी
नई है रूई की बाती
परी<ref>तेल नापने की नपनी के लिए यह देशज शब्द है</ref> भर तेल है देसी
दिया, जैसे कड़ाही में
पकौड़ा तल रहा है
नवेली फुलझड़ी ने
इस बरस ताने नहीं मारे
पटाखे फुस्स होकर
रह गए इस बरस बेचारे
सभी चुप हैं, मगर सबको
अँधेरा खल रहा है
शब्दार्थ
<references/>