भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दीवानों की बस्ती में / शशि पाधा
Kavita Kosh से
हंसी ठिठोली, चुहल चुटकुले
दीवानों की बस्ती में
दिन तो बीते उत्सव मेले
रातें मौज परस्ती में।
उलझन की ना खड़ी दीवारें
ना कोई खाई रिश्तों में
मोल भाव ना मुस्कानों का
ले लो जितना किश्तों में
खुले हाथ बिकती हैं खुशियाँ
भर लो झोली सस्ती में।
चैन की बंसी, गीत गुनगुने
माथे पर ना शिकन कहीं
अभिमानों के महल कहीं न
साहु- सेठ का विघ्न नहीं
सुख़-दुःख दोनों खेला करते
धूप –छाँव की मस्ती में।
मन तो रहता खुली तिजोरी
ताला चाबी रोग नहीं
रूखी सूखी बने रसोई
हाँडी छप्पन भोग नहीं
चार धाम खुद आन बसे हैं
सब की घर गृहस्ती में।
ताम झाम सब धरे ताक पे
किया वही जो लगा सही
झूठ कपट का कवच न पहना
खरी –खरी ही सदा कही
न नेता न चपल चाकरी
समदर्शी हर हस्ती में।