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दीवार पर कविता / मोईन बेस्सिसो / उज्ज्वल भट्टाचार्य

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...मुझे पता नहीं, कहाँ और कब
किस घड़ी और किस ठौर
ऐसा हुआ
कि कवि को मार डाला गया ।

मुझे पता है, कि वे आए
क़ातिल आते थे और आते हैं
कल वे यहाँ थे
आज वे वहाँ हैं
और कल वे हर कहीं होंगे
हमेशा ही कवियों का ख़ून बहाया जाता रहेगा ।

देखो, अगर तुम्हारे चेहरे पर अब भी आँखें हों
पाँच तलवारधारी, उनके बीच एक कवि
और गुस्से से भरी एक कविता, दीवार पर खुदी हुई
लूई प्रथम और लूई इक्कीसवें के ख़िलाफ़
— अपने हाथों से उन्हें मिटा डालो, दीवारों पर खुदी हुई मनहूस कविताएँ ।

कवि अपनी कविताओं को हमेशा मिटा देता है
अपने ही हाथों से
और अलफ़ाज़ की धूल धरती पर जमने लगती है
लफ़्ज़ उसकी आँखों में समा जाते हैं
पाँचवीं पंक्ति के बाद उसकी दाँई आँख बुझ जाती है
दसवीं के बाद उसकी बाँई आँख
रह जाती है उसकी जीभ और रह जाता कवि का चेहरा
— अपनी जीभ से उसे मिटा दो, जो दीवार पर खुद गई है

जर्मन से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य