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दुःख / आभा पूर्वे
Kavita Kosh से
तुम उतरे थे
मेरी आँखों में
जाड़े की धूप की तरह
और फिर
उतरते ही रहे
कुछ इस तरह
कि वह धूप ही
जेठ की धूप बन गई
और मेरी आँखों में
आँसू के दो कतरे भी
शेष न रहे
रोने के लिए ।