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दुःख किसी से क्या कहूँ मैं / अमरेन्द्र

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दुःख किसी से क्या कहूँ मैं,
दाह में चुपके दहूँ मैं ।

आज मेरा गाँव मुझसे
पूछता है नाम-परिचय,
भूल कर मैं आ गया हूँ
दूसरा ही देश निश्चय;
भोर में यह क्यों जलन है,
साँझ क्यों ऐसी जली-सी !
रात की आँखों में क्यों है
बेकली यह खलबली-सी !
यक्ष का-सा प्रश्न घेरे
भाग जाऊँ या रहूँ मैं ?

क्यों नदी के तीर व्याकुल
छाँव व्याकुल, गंध व्याकुल,
द्वार की टटिया अचंभित
आरती के छन्द व्याकुल ?
कण्ठ झूमर के रूंधे हैं
सोहरों में राग समदन,
भीड़ में भुतला गया है
हर किसी का शोख बचपन;
तालियाँ दे खुश सभी हैं
बीच लहरों पर बहूँ मैं ।