भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दुःख में पद / मुकुटधर पांडेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नाथ अब हर लो मेरी पीर।
तन-पिंजर में बन्द रट रहा, तुम्हें प्राण ज्यों कीर।
दुःख दावानल मेंपड़कर है, जलता आज शरीर
उस पर मनस्ताप नित मुझको मार रहा है तीर
दीन मलीन सरुज जन के प्रभु! नयनों का यह नीर
पोंछेगा हाथों से तुम बिन कौन भला रघुबीर?