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दुख / सुप्रिया सिंह 'वीणा'

हम्में सृष्टि के पहिलोॅ रचना,
कैन्हैं अबला बनाबै छै।
सौसें समाज ई दुश्मन
जियै लेॅ कारागृह दै छै।
नियम छै सब टा बेटी लेॅ ही,
सभ्भे जल्लाद बनलोॅ छै।
आदमी रोॅ अहंकार जबेॅ मिटतै,
संभव छै तबेॅ ई भेद-भाव जैतै।
दहेज के नाम पर बेटी,
बलि के भाग बनलोॅ छै।
पैसा के भूख में इंसान रोॅ,
सब ईमान बिकलोॅ छै।
सुखद संसार होय छै प्यारा ,
यही पर संसार टिकलोॅ छै।
तोड़ी केॅ मरजादा रोॅ सीमा,
रावण के राज फैललोॅ छै।
चलोॅ सब ज्ञान के पथ पर,
स्वयं शक्ति सहारा छै।
गलत हर एक व्यवस्था पर,
कुठाराघात करना छै।