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दुख के सितम हज़ार मगर मुस्कुरा के देख / ज्ञान प्रकाश विवेक

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दुख के सितम हज़ार मगर मुस्कुरा के देख
तू अपनी अज़मतों को ज़रा आज़मा के देख

शायद तुझे उड़ान की दे जाए दावतें-
इक दिन किसी उक़ाब को छत पर बुला के देख

तूने हथेलियों पे उठाए कई पहाड़
पानी पे जो हुबाब हैं इनको उठा के देख !

जब मैं हुआ उदास तो बच्चों ने यह कहा-
‘काग़ज़ की कश्तियाँ या घरोंदे बना के देख’

मैंने ये सब चराग़ हवा से जलाए हैं-
तूफ़ान ! तेरी ज़िद है तो इनको बुझा के देख !

मेरा तो है यक़ीन कि निकलेगी रोशनी-
आँसू को तू चराग की तरह जला के देख.