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दुख था घना / संतोष श्रीवास्तव

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नीड़ तिनकों का बना कर
मुग्ध थी वह
स्वयं के निर्माण पर
नींव का पत्थर था तिनका
डालियों में भुवन-सा
तनकर खड़ा था

थिरकती वह डालियों पर
पत्ता पत्ता
नेह के साम्राज्य पर

वह कुठाराघात था
रुक गया था गीत
इंद्रधनुषी जहाँ
वहीं से चरमराया वृक्ष
सहसा गिर पड़ा
नीड भी टूटा
उसी के संग उड़ चली
संवेदना, कातर विव्हलता

आघात इतना था प्रबल
भीत वह फड़फड़ाती
चीखती उड़ती रही
संग संग मनुज के
जिस के कंधों पर टिकी थी
वज्र-सी भीषण कुल्हाड़ी
धार पर था
नन्हे चूजों का रुधिर
धार पर वह फड़फड़ाती
नाश का दुख था घना