भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दुखड़े / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
Kavita Kosh से
ओढ़ काली चादर आई।
देख कर के मुझ को रोती।
पड़ी उस पर दुख की छाया।
रात कालापन क्यों खोती।1।
जान पड़ता है दर देखे।
निगलने को मुँह बाता है।
बहुत मेरा प्यारा जो था।
घर वही काटे खाता है।2।
करवटें बदला करती हूँ।
दुखों के लगते हैं चाँटे।
बिछौने से तन छिदता है।
बिछ गये क्यों इस पर काँटे।3।
जगाता है क्यों कोई आ।
आग क्यों जी में है जगती।
हो गयी इसे लाग किस से।
किसलिए आँख नहीं लगती।4।
बे तरह जलती रहती है।
नहीं कैसे वह डर जाती।
आँसुओं में बह जावेगी।
नींद क्यों आँखों में आती।5।