भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दुनिया चालाकी का गुच्छा / वैभव भारतीय
Kavita Kosh से
दुनिया चालाकी का गुच्छा
किस ओर कहो मैं धरूँ पैर
बाँधूँ सर पर पगड़ी किसकी
किस बियाबान में करूँ सैर?
सबने बोला किस्सा न्यारा
सबकी अपनी सच्चाई है
है साँप घुस चुका मस्तक में
आस्तीन बहुत सकुचायी है।
सब अपनी-अपनी डफली पर
हैं अपना राग अलाप रहे
जो तर्कों से कमज़ोर दिखे
वो राग धनश्री साध रहे।
है जटिल समस्या जीवन की
ये साँस निगलकर जीता है
बाधाएँ रखता है हर पल
अंगार घोंट कर पीता है।
दुनिया नादानी का गुच्छा
किस ओर कहो मैं धरूँ पैर
बाँधूँ सर पर पगड़ी किसकी
किस बियाबान में करूँ सैर?