भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दुनिया में रहकर भी / एकांत श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
शरद आया तो मैं कपास हुआ
मां के दिये की बाती के लिए
धूप में जलते पांवों के लिए जंगल हुआ
घनी छाया, मीठे फलों और झरनों से भरा
लोककथाओं के रोमांच में सिहरता हुआ
मोर पंख हुआ छोटी बहन की उम्र की किताब में दबा
छोटे भाई के कुर्ते की जेब के सन्नाटे में
पांच का एक नया कड़कड़ाता नोट हुआ
किसी की बूढ़ी आंखों का चश्मा हुआ
उनकी एक सुबह के समाचारों के लायक
किसी के इंतजार के सूने पेड़ पर
कौआ हुआ बोलता हुआ और उड़ गया
सबकी इच्छाओं और सपनों के अनुसार
मैं सब हुआ
पर हाय! दुनिया में रहकर भी
दुनियादार न हुआ.