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दुनियादारों से / अरुण आदित्य
Kavita Kosh से
तुम्हारी दुनिया में
कैसे समा सकता है मेरा गाँव ?
इतनी छोटी है तुम्हारी दुनिया
कि इसमें है सिर्फ़ स्वार्थ-भर जगह
और स्वप्न-भर विस्तार में बसा हुआ है मेरा गाँव
प्रेम-भर मेरी गठरी ही
नहीं समा पा रही इस स्वार्थ-भर जगह में
फिर स्वाभिमान-भर ऊँची ये लाठी कहाँ खड़ी करूँ ?
लाठी और गठरी के बिना
बेशक समा सकता हूँ मैं तुम्हारी दुनिया में
लेकिन कैसे छोड़ दूँ
इन दोनों में से एक भी चीज़
कि ये लाठी और गठरी ही मेरी दुनिया है
तुमको मुबारक़ हो तुम्हारी दुनिया
मुझे पड़ा रहने दो अपनी लाठी और गठरी के साथ ।