दुर्दिन / रामगोपाल 'रुद्र'
गरज रहा है आसमाँ,
प्रलय का बँध रहा समाँ,
घुमड़ रहे घटा-कटक
कि आज व्योम पर विजय किये अकड़ रही अमा।
हहर रहे पहाड़ पर
विटप नदी-कछार पर
कि मृत्यु आ गयी निकट
उजड़ न जाय जड़ उखड़ हवा के एक वार पर।
दिगंत अंधकारमय
दुरंत दु: ख-भारमय
घटाएँ दुंद बाँधके
बजा रही है दुन्दुभी प्रलय-प्रणाद एकलय।
हहास बाँधके पवन
हिला रहे लता-भवन
झुलस चुकी हैं क्यारियाँ
चमन-चमन में धूम है कृतान्त कर रहा हवन।
इधर जो नीड़ों में विहग
भयार्त्त शावकों से लग
परों में घर छिपा रहे
कि तार-तार हो रही है डाल-डालियों की रग!
उधर मरुत्प्रहार से
प्रपूर्ण जलविकार से
हिलोरे क्षुब्ध अब्धि के
चले प्रचण्ड युद्ध के तुरंगों की कतार-से।
अनन्त में गड़े हुए
नयन-नयन जड़े हुए
चकित कि हो रहा है क्या
लगाते मेघ फेरियाँ, हवाओं पर चढ़े हुए।
कि तड़तड़ा उठी तड़ित्
दिगन्त हो उठे चकित
गिरा कहीं ज्वल्लसित
सुरेन्द्र का प्रचण्ड दर्प-दण्ड उग्रता-भरित।
घहर घनन्-घनन् घनन्
गगन के बज उठे भवन
भुवन में मौन छा गया
सिहर उठे धरा के रोम-रोम भीषिका-प्रवण।
समस्त सृष्टि-कल्पना
समस्त दीप्ति-ज्योत्सना
समस्त शौर्य-वीर को
लगा कि काठ मार गयी एक व्योम-भर्त्सना।
मुहूर्त्त-भर मही रही
प्रशान्त, ठगी-सी रही
जगे परन्तु शीघ्र ही
उदग्र चक्रवात और काँपने लगी मही
न जाने हो रहा है क्या
पुन: डुबो रहा है क्या
बिड़ौजा, वज्र-समान ही
धरा के ग्राम-ग्राम को, घनों की पंक्तियाँ सजा?
कि आग-सी लगी वहाँ
बसे हैं देवता जहाँ?
धुँए के गोल उठ रहे
घिरा है घटाटोप कृपणता से आज आसमाँ।