भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दू तिनका / रामपुकार सिंह राठौर
Kavita Kosh से
नदिया के धारा में,
तैर रहल दू तिनका,
लहर के थपेड़ा से,
एक जगह मिल जाहे ,
साथ-साथ चलला में-
सट-पट के खुश केतना!
उछलऽ हे, कूदऽ हे,
दुन्नो तो नितरा हे।
विधना के चाल अलग,
एगो डूबल भँवरी में,
दूसर न ठहरऽ हे,
कैसन भागल जाहे।
एके गो भँरी तो
ने हे ऊ धारा में,
मूरख तिनका के अब, कौन हे जे समझावे।
लहर पर लहर हे औ,
भँवर पर, भँवर केतना!
आने के भँवरी तो,
ओकरी निगल जाहे।