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दूर देश उड़ गये पंछी / नीता पोरवाल
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हर शाम
झर गये हरेक पत्ते से
पूछती हूँ
झर जाने की वज़ह
गुनगुना देती हूँ
इक गीत उनके कानों में
और ले लेती हूँ वादा
फिर उनसे सब्ज़ रहने का
झर न जाए
कहीं कोई पत्ता
सो चुरा लेती हूँ
हवाओं से नमी
सरका देती हूँ
जमीन में दबी
गुल्लक में
बादलों को परे कर
लपक लेती हूँ
कुछ सुनहले सिक्के
और रख देती हूँ
उनकी हथेलियों में
क्योंकि
गर होंगे पत्ते
तो मुमकिन है कि
लौट आयें
दूर देश उड़ गये पंछी